Thursday, December 29, 2016

हे काव्यजंली

कितना सुकून तेरी बाँहो मे,
आज प्रेम साकार हुआ ,
तेरी आहों मे ,
ये काव्यांजलि

निग़ाहों मे तेरी
हर काव्य संकलित
चंचल चपला सी तू ,
मेघो से उतरती दिखती
ये कव्यंजली

ह्दय प्रेम घुटी पीकर
शिवा तांडव करता है
तेरे केश के कचकुटुम्भ में
घन घोर संकलित दिखता है
ये काव्यांजलि

हर शब्द हीन हर रूप कुरूप
तेरी इस कंचन काया पर
क्या काव्य लिखूं
ये काव्यांजलि
 

एक प्रेम

एक फूल उगा
पत्थर के दर्मिया
समय गुज़रा
प्रेम बढ़ता गया
पत्थर पत्थर ही निकला
रक्ततप्त होकर
पुष्प को जला दिया
उसकी अस्थियों को
वायु में उड़ा दिया
समय गुज़रा
पत्थर बृद्ध हो गया
काई से नाहा कर
रंग को भी त्याग दिया
फिर कोपल फूटी
फूल फिर निकला
अब उसकी बाहों (जड़ो) ने
उसको आगोश में ले लिया (आशु)

Friday, December 23, 2016

ज्वलंत

कहो तो कर दूँ
कलम से छेद बदलो में
झूम कर भीग लो
इन शब्द बूदों मे,

हम लिखते  है
कोरे कागजों पर
अंगारों से शब्दों को
आज अंगारों की बारिश
भी देख लो ज़रा (आशु)

Friday, December 16, 2016

ये ज़िन्दगी

ये जन्दगी रुक जा अभी
कुछ और खा लू
माँ हाथों की रोटियां
फिर तो भागना ही है
सब छोड़कर जाना ही है

ये जिंदगी रुक जा अभी
कुछ देर और खेल लू
अपने पुराने यारो के साथ
फिर न जाने कब मिलेगे

ये जन्दगी रुक जा अभी
कुछ कास्तियां छोड़नी है
उस दरिया के पानी में
सारा दिन जहाँ नहाया करते थे

ये जिंदगी रुक जा अभी
बरसात आने की वाली है
वो सोंधी महक
फिर छाने वाली है

ये जिंदगी रुक जा अभी
गाँव में फिर हरियाली
आने वाली है
कोयल फिर गाने वाली है

ये जिंदगी रुक जा ज़रा ....

Friday, December 9, 2016

बहरूपिया

वो चाँद को पलट कर देख ,
चाँदनी का गुरुर उसे,
उधार की रोशनी से,
सिंगार जो कर रहा,

अपने रूप के गुरूर मे,
चूर अब हो रहा,
आसमा मे नहीं टिक रहा ,
मेरे साथ साथ चल रहा,

हर कदम पर मेरे
नज़र वो देख रख रहा,
कभी प्रीतम कभी मामा ,
बन साथ साथ रह रहा ,

उधार की रोशनी से,
जो जीवन वृतीत कर रहा ,
बहरुपिया चाँद,
देख रिश्ते भी जो बदल रहा,

Sunday, December 4, 2016

एक कहानी अधूरी

कभी-कभी हम देखते हैं कि लोग अपने परिवार का पोषण करने के लिए क्या-क्या नहीं करते अपने बच्चों को पढ़ाते हैं अच्छी शिक्षा देते हैं अच्छे संस्कार देते हैं और बच्चे भी अपने मां बाप का कर्ज चुकाने की पूरी कोशिश करते हैं पर आज का समाज वहां के लोग अपनी सोच को बदल नहीं पाए इसी पर आधारित एक कहानी आप सबके समक्ष रखने जा रहा हूं पढ़ियेगा मंथन करिएगा तर्क दीजिएगा।

एक गांव था  एक धोबी रहता था वहां पर, हम जानते हैं कि गांव में धोबी को किस नजर से देखते हैं शहर होता तो उसकी ड्राइक्लीन की दुकान होती पर गांव गांव ही होता है सोच बदल सकती है पर यह मुश्किल है और कैसे बदला जाए इसका उपाय भी तो होना चाहिए चलिए छोड़िए कहानी में आते हैं तो धोबी के परिवार में मात्र 3 सदस्य  थे धोबी रामदीन पत्नी सावित्री और एक पुत्र राजू तीनों बड़े खुशहाल होकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे राजू पढ़ाई करता था मां खाना बनाती थी कभी कभी मां पिताजी का हाथ बटाती थी समय बीता राजू ने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की और इंटर में प्रवेश किया विद्यालय शहर में था तो अब राजू कम ही गांव जाने लगा था और शहर में ही रहकर अपनी पढ़ाई कर रहा था मां बाप अपने बच्चों को पढ़ता देखकर बड़े खुश होते और खूब मेहनत करके राजू को पैसे भेजते रहते हैं राजू भी कभी-कभी गांव आ जाता और मां-बाप के हाल चाल लेकर वापस चला जाता समय बीता राजू को एक अच्छी नौकरी मिल गई मां-बाप के चेहरे में चमक आ जाती है जब उनका लड़का या लड़की कोई भी उनके नाम को आगे बढ़ाता है अब नौकरी मिल गई थी राजू को राजू शहर का हो अब गांव में कौन है मां-बाप का भी हाल अब फोन में ही लेने लगा था मां भी कभी-कभी देहरी पर बैठकर इंतजार करती रहती कि राजू आयेगा राजू बदल गया ऐसा नहीं की मां बाप के लिए प्यार कम हुआ हो बस समय का अभाव  यह जिंदगी भी कितनी अजीब है कुछ पाने के लिए अपनों को छोड़ देना पड़ता है घर को छोड़ना पड़ता है परिवार को छोड़ना पड़ता है अब राजू के साथ भी यही था वह शहर में ढल गया था गांव में अच्छा नहीं लगता क्या करें समय बीता राजू का विवाह हुआ दोनों दो अब शहर में रहने लगे और मां बाप गांव में राजू के पास खुद का परिवार था मां बूढ़ी हो चुकी थी पिता भी थक गया था उसकी खबर कभी-कभी राजू ले लिया करता था मां भी कभी-कभी सोच कर रोती की क्यों पढ़ाया राजू को एक दिन राजू का फोन आया कि मां हम लोग विदेश जा रहे हैं मां बड़ी खुश हुई आशीर्वाद दिया चला जा बेटा और खूब नाम कमा पर दिल गवाही नहीं दे रहा था अब राजू परदेसी हो गया था समय बीता और वह वहां पर ही रहने लगा अपने देश में था ही कौन मां बाप उनका काम था अपने बच्चों को पढ़ाना और अपने पैरों पर खड़ा करना जो उन्होंने कर दिया और राजू बड़ा आदमी बन गया अपनों को खोकर राजू भी परिवार था
का लड़का था एक दिन खबर मिली क्यों उसकी मां बाप दोनों नहीं रहे मां पानी भरते समय फिसल गई जिस कारण वह तालाब में गिर गए और उसकी मृत्यु हो गई इसी गम में पिताजी भी चल बसे राजू भी क्या करता समय बीता अब राजू बुड्ढा हो गया और उसकी पत्नी दोनों ने सोचा कि अब वापस अपने देश चले बहुत पैसा कमा लिया नाम कमा लिया उन्होंने अपने लड़के से कहा कि चल वापस चलते हैं अपने देश पर शान शोहरत छोड़कर कौन जाएं उस गांव में यह कहकर लड़के ने वहां पर ही रहने का फैसला कर लिया राजू और उसकी पत्नी दोनों वापस भारत आ गए दुखी मन से और गांव में रहने लगे कभी-कभी राजू सोचता तो रोता कि  मां पर क्या गुजरती होगी जब वह कहती थी कि शहर में ही रह तरक्की कर और नाम कमा जब विदेश भेजा होगा तब क्या सोचा होगा या सोचता और रोता रहता आज जब खुद पर गुजर रही है तब उसे यह एहसास हो रहा है कि परिवार होता क्या है एक अधूरी कहानी है जो शायद हर परिवार से जुड़ती है हर व्यक्ति से जुड़ती है इस को बदलना होगा शुरूआत हमको ही करनी होगी ना जाने कितने राजू अपने परिवार को छोड़कर आज चंद रुपयों के चक्कर में जीवन की खुशी जीने का तरीका सब भूल गए है

Sunday, November 27, 2016

वो चाँद मै जल रहा

वह चांद जल रहा है  हमें देख कर  कभी तुम्हें देख कर मुस्कुराता हुआ  वह चांद चल रहा है हमें देखकर  

Saturday, November 12, 2016

राधे

राधे राधे बोल ,
स्याम रंग रंगी राधे बोल
राधे राधे बोल
बोल बोल बोल
शयम की मीरा मीरा बोल
हम तेरे प्रेम पागल,
बोल बोल
हमको भी तू दास बना ले
प्रेम के रंग में मुझको भी
भीगा दे,
कह्ना कह्ना बोल
हम सब तेरे प्रेम के प्यासे
मधु की एक बूद हमे भी पिला दे
सवाल हमको भी अपना बना ले
सब है तेरे प्रेम में पागल
मुझको को भी
अपने रंग में रंगा ले
राधे राधे बोल
कह्ना कह्ना बोल

Sunday, November 6, 2016

मातृत्व


माँ मातृभाषा 

मातृभूमि से समझौता 

मै नहीं करता

भूखा रह लूँगा 

पर देश बेच कर 

पेट नहीं भरता


अश्रु बहा कर जी 

सकता है आशु

पर देश अपहित से

 मरना भला

यह संकल्प है मेरा

देश हित ही 

लक्ष्य है मेरा

लक्ष्य है मेरा

Monday, October 24, 2016

कैसी क्रन्ति

कैसी यह क्रांति
न जोश है न होश है
खुद खुद से लड़ रहा
हर सख्श बेहोश है,

ख़ुद को ख़ुदा समझता
अहम में जब गर्जता
न चित की चिंता
न चिंतन किसी का
कैसी यह क्रांति

न मान न सम्मान है
फ़सा हर इंसान है
स्वम्भू बनाने की चाह है
न जाने कौन सी राह है

बस आगे बढ़ना है
कन्धा किसी का हो
बस चढ़ना है
सोच में नहीं शान्ति
कैसी यह क्रांति

Thursday, October 6, 2016

आग़ोश

तेरी आग़ोश में
जहाँ दिखा
प्रेम की झलक
स्वप्नो की ललक दिखी

स्पर्श मात्र ही
रूह की सिहरन
को जगा गयी
कुछ अरमानों के
स्वप्न सार्थक हो गए

यह स्पर्शी प्रेम
तेरी आग़ोश में
रोम रोम में
अहसाह अपन्त्व का

Friday, September 9, 2016

जय काली

जय काली जय काली
चीते चार्म की साड़ी वाली
नर मुंडो की माला धारी
जय काली जय काली

स्वंण सा चेहरा
रक्त सी आँखे
केश घटा से
चरण चाँद से
जय काली जय काली

ममता की मूरत
माँ की सूरत
प्रेम की गंगा
माँ चामुण्डा
जय काली जय काली

हज़ारो सूर्यो का तेज लिए
हाथ में खप्पर ढाल लिए
मुख  से जिसने
शाहत्र्य गजो को
रोष में जिसने चबा लिया

न जाने कितने बाहुबलियों का
सर जड़ मूल से उखाड़ लिया
हजारो चक्रो को जिसने
मुख में अपने समा लिया

जय काली जय काली
प्रेम की मूरत ,
माँ काली को
जिसने अपना मान लिया
पुत्र बनाकर माँ उनका जीवन निखार दिया

Monday, July 11, 2016

मादा मच्छर

आज की नारी मादा मच्छर
सब पर भरी यह मादा मच्छर
पीती खून बिना यह जाने
प्यार से पुचकार के मारे
बटुवा खाली करके माने
फरमाइशों की बोली लगती
हमारी जेब बैंक है दिखती
सब पर भारी आज की नारी
भिखरी दशा यह कर दे
पूरा दिन तानो से भर दे
मादा मच्छर आज की नारी
खून भी पीती लात भी मारे,
फसे हुए है हम सब बेचारे , (आशु)

Wednesday, June 15, 2016

काग़जी नौका

बारिश की चार बूँद
गिर कर  हम पर यूँ लगी
जलते रेगिस्तान सा ह्दय
दरिया में बदल गया,
मन भी सरारत को
मचल उठा

कागज को मोड़ कर
दो कोने छोड़ कर
फिर मोड़ कर
उस जल धार में छोड़ दिया

वो कागज़ी नैका
बहती गयी बहती गयी
आँगन को छोड़ कर,
डेहरी के मोड़ तक,

फिर वो -
दरवाज़े में अटक गई
थोड़ी राह से भटक गयी
वो कागज़ी नौका
मेरे हाथ में समिट गयी

Thursday, June 9, 2016

पीड़ित पत्रकार

एक लड़ाई है कलम की
मै सैनिक हूँ कलम का
कमजोर बना दिया जग ने
अब कलम टूट कर गिरती है
लिख कर सत्य राह बदलती
अब कलम डर से चलती है
एक लड़ाई है कलम की
अब कलम रूप बदलती है
(आशु)

Tuesday, June 7, 2016

वेश्या

एक नया रूप
नारी का देखो
कभी थी बेटी
किसी आँगन की
जो बिक गयी
दानव के हाथो
एक नया रूप
मानव का देखो
वो कोठे में बैठी
किये सिंगार
बिक रहा जिस्म
हर रात है देखो
नारी का यह
अवतार तो देखो
रोता ह्दय
चहरे पर मुस्कान
यह देखो
एक नया रूप
नारी का देखो

Saturday, June 4, 2016

एक पौध

एक कोमल सी कोपल
कल कुछ बढेगी
हरयाली लिए
एक पात लिए
जीवन में योगदान करेगी
चलो हम भी एक सकल्प ले
एक पौध लगाये आँगन में
हरा भरा संसार हमारा
मिलकर हाथ बढ़ाये
एक कोमल सी पौध लगाये

Sunday, May 29, 2016

सौ कोस ( भाग 1)

गरीबी की मार झेल रहा रामू और उसका भाई बिरजू , साम को खेत में ऊपर बादल निहारते हुए सोच रहे थे इस बार भी बारिस के आसार कम ही है , घर बार कैसे चलेगा और बच्चे जब रोटी के लिए रोते है तो रामू की आँखे भर आती है , पर क्या किया जाए यह तो प्रकृति की मार है  , जिससे सब घिरे हुए है ,  बिरजू गाँव के एक सेठ के घर में काम करता था बिल्कुल मस्त मौला आदमी कुछ घमंडी , उसको किसी चीज की चिंता नहीं , बस अपने से मतलब रखने वाला  ,पर कभी कभी अपने भाई और घर की स्थित देखकर चिंतित हो जाता था , घर पर पुरानी खपरैल , कुछ घास फूंस लगी हुई पर समय की मार झेलकर वो भी अस्त वस्त है , दरवाजे की जगह  एक पुराना पर्दा पड़ा था , अगर कोई उसे खोल देता तो गरीबी की नग्नता को साफ़ देख सकता था , जिस तरह नारी की लाज साड़ी बचाती है उसी तरह पर्दा घर की लाज को ढके पड़ा था ,   पर अपने स्वभाव के कारण बिरजु  कुछ समय में अपनी मनोदशा मे  वापस आ जाता था और साम को सेठ से पैसा लेकर  मदिरालय में दारू पीता और घर आकर सो जाता है, उसे न समाज की फ़िक्र न घर की , कौन रो रहा है कौन भूखा है बस अपने बिस्तर उठाता और बाहर आ कर सो जाता , इसके विपरीत रामू सारी रात चिंतित और पत्नी से बाते करता रहता की अब क्या होगा कल खाना किस तरह बनेगा ,इसकी योजना बनाते बनाते कब सो जाते पता नही चलता ,  सुबह रामू सबसे पहले उठ कर खेत जाकर कुछ खाने का इंतजाम करता था और कभी कभी दुसरो के खेत से भी कुछ सब्जिया तोड़ लेता था , पेट क्या न कराये , पल भर में चोर बना देता है एक सीधे इंसान को ,  बिरजू इसके विपरीत सोता और उठकर नित्यक्रिया कर काम पर चला जाता , और सेठ की जी हुजूरी कर कुछ मुनाफा भी कमा लेता , कभी कभी साम को बच्चों के लिए कुछ ले आता , पर रोजाना उसके मिलने का एक ही स्थान होता है मदिरालय , ठेका भी  सेठ का कभी पैसे दिए नहीं दिए सब चलता था , कच्ची शराब पीकर मस्त होकर घर आता , खाने को मिलता तो सही नहीं तो सो जाता ,  समय बीतता गया , सुखा के कारण पूरा गाँव भुखमरी झेल रहा था , पर अब रामू की स्थिति और दयनीय हो  गयी थी , कभी रोटी मिलती कभी खाली पेट , बच्चों को भी माँ कब तक पानी में गुड़ घोल कर दूध कह कर पिलाती ,पर  आँशुओ को आँखो से निकलने से नहीं रोक पाती ,  बच्चे भी कभी कभी कह देते माँ रो मत यह दूध बहुत अच्छा है , तब सीने से अपने बच्चे को लगा लेती ,   यह सब देख कर रामू भी दुःखी हो जाता की वह कुछ कर नहीं पा रहा है , बस अपने गरीबी के दिन गिन रहा था , कभी कभी सोचता की पूर्व जन्म के कर्म है शायद , गाँव में अकाल , एक एक रोटी के टुकड़े के लिए लड़ते बच्चे , यह देख कर मन विचलित हो जाता था पर वो क्या कर सकता है ,जो स्वम् पीड़ित है , कभी कभी मन करता था की इस जीवन को समाप्त कर लू , पर आत्महत्या वो सिर्फ मेरी नहीं होगी पुरे मेरे परिवार की होगी यह सोच कर रामू सांत हो जाता था ,इधर सेठ भी जिन जिन लोगो को सूत में कर्ज दिया था उनके घरौंदों को तोड़ने से भी पीछे नहीं हट रहे है , और जब जब बिरजु उसूली करने जाता लौट कर आकर वही नित्य क्रिया में लग जाता ,कच्ची शराब पीकर सो जाना , उसका जीवन इस तरह ही चल रहा था, एक दिन रत्रि में गाँव के तीन लोगो की अचानक मृतु ने पुरे गाँव को भयभीत कर दिया , बाद में पता चला की  यह सब सेठ के यहाँ से शराब पीकर आये थे इस कारण इनकी मृतु हो गयी है , सारे गाँव के लोग रामू की अगवाई में सेठ के घर जाकर  हँगामा करते है , सेठ उनको सांत कराते हुए कहते है क्या चाहिये , हम सब सही कर देंगे सांत रहे ,  सब चले जाते है  ,क्योंकि उन लोगो में प्रमुख रामू था इसलिये सेठ ने बिरजू को बुलाया और कहा की अपने भाई को कल मेरे घर लाना , बिरजू ने वही किया अगले दिन वो रामू को लेकर सेठ के घर पंहुचा , सेठ ने रामू से कहा की तुम गाँव वालो का साथ मत दो , इसके बदले में हम तुम्हे जितनी कहोगे उतनी जमीन देगे , रामू ने कुछ  सोचा फिर अपने बच्चों और पत्नी के विषय में सोचने लगा की हमारे सारे कष्ट समाप्त हो जायेगे , कुछ समय के लिए स्वर्थी हो गया था और समाजवादी से पारीवारवादी बन गया था , रामू मान गया , सेठ उसे अपने खेतो की तरफ ले गया और कहा की यह सारी ज़मीन मेरी है तुम चाहो जिनती मन हो  ले लो , और कहा की कल तुम जितनी ज़मीन में हल चला लोगे वो तुम्हारी होगी , यह कह कर सेठ चला गया , अब रामू को चैन नहीं पड़ रहा था रात में भोजन भी नहीं किया , सोचा की कल कम से कम सौ कोस हल चलाऊँगा सोचते सोचते सारी रात जगता रहा , की अब सब गम दूर हो जायेगे  हम अमीर हो जाएंगे , दिन आया सब तैयारी रामू करने लगा एक बैल वो भी कमजोर जब इंसान भूखे है , जानवर को कौन देखे , रामू ने  बैल को पानी पिलाया और सेठ को खेतो की ओर ले गया  वाह सेठ का मुनीम और रामू की पत्नी बच्चे सब आ गए , कमजोर बैल और रामू भी पर इस समय न जाने कहाँ से इच्छा शक्ति रामू में आ गयी थी , रामू बलवान खुद को प्रतीत कर रहा था , रामू खेतो में हल चलाना प्रारंभ करता है ,  कुछ देर चलने के बाद बैल कमजोरी के कारण रुक जाता है , सोचता है अभी कोस भर भी नहीं हुआ  और बैल रुक गया , और वो चाबुक उठाता है बैल को मारता है बैल भी अपनी जन्दगी के लिये चलता है और  चलता रहता है  अब रामू को क्रूरता के लक्षण दिखने लगे थे , लगातार मार खाने और चलने से अब बैल भी चलने में असमर्थ हो रहा था , सर पर घोर धुप ,  अब रामू एक ही बात सोच रहा था की सौ कोस कम से कम , पर अभी तो तीन कोस भी नहीं हुए और घमंड और क्रूरता से भर कर बैल को मरता रहा , और वो कुछ कदम चलता और रुक जाता , अंत में बैल  कुछ कदम चल कर गिर जाता है , तब रामू समझ जाता ही की अब यह नही उठ पायेगा, और बैल से हल निकालकर खुद हल कंधे में रख लेता है और बैल को तड़पते मरता छोड़ कर आगे बढ़ जाता है काफी चलने के बाद , पसीने से तरबतर हो जाता है और थक कर बैठ जाता है ,पर मन में लालच भी अब आ गया की कुछ जमीन और जोत लु मेरी हो जायेगी , और उठ कर आगे बढ़ गया ,आज रामू में हर परिवर्तन आया , कई रूप सामने आये ,  रामू काफी आगे निकल आने के बाद वापस जाने के लिए सोचने लगा  और हल उठा कर चल दिया चलता रहा और चलता रहा जब तक उसके कदमो ने उसका साथ दिया और एक जगह बैठ गया अब एक कदम चलने में समर्थ नही था अब उसकी स्थिति उस बैल के सामान थी , रामू सोचने लगा की क्यों वो इतनी दूर आ गया अगर वापस नहीं गया तो कुछ नहीं मिलेगा , अब हताशा भी साफ़ साफ़ झलक रही थी , बार बार उठ कर चलता और रुक जाता , रामू का शारीर अपनी कार्य करने की सीमा से परे जा चूका था ,  यहाँ दूसरी तरफ  सूर्य की लालिमा की स्थित में आने लगा था और धीमे-धीमे तिमिर से सूर्य धरा की ओर लालिमा लिए बढ़ने लगा था  रामू को अब समय की सोच ने घेर लिया की वह पहुँच पायेगा की नहीं ,  उसने हल को छोड़ दिया और अपने गाँव की तरफ दौड़ पड़ा , रुकता फिर दौड़ता  शारीर में अब चलने की छमता समाप्त हो गयी थी रामू कुछ दूर चला और गिर गया , तब उसने देखा की  उसका परिवार दो बीघे बाद खड़ा इंतजार कर रहा है अब उसकी आँखो में चमक को साफ़ साफ़ देखा जा सकता था , वो उठा और तेजी से चलने लगा और अपनी पत्नी के पास पहुँच कर गिर गया मुँह से ख़ून आने लगा और  उसकी आँखे बंद होने लगी थी और कुछ समय बाद उसकी सांसे थम गयी और परिवार ने सब कुछ खो दिया बच्चे अनाथ और पत्नी बेवा हो गयी , अब सेठ ने भी बिरजू का साथ छोड़ दिया और गाँव वाले भी नराज़ थे अब स्थित और बत्तर हो गयी थी, बिरजू गाँव छोड़ कर चला जाता है और रामू की पत्नी बच्चों को लेकर अपनी झोपडी का पर्दा हटाती और अंदर चली जाती शायद कभी बाहर न आने के लिये ।

Monday, May 2, 2016

कलम के सिपाही

डरता हूँ, सच लिखने से
कलम जला दी न जाये
डरता हूँ सच कहने से
कही सांसे थाम न दी जाये,

पर हम नहीं है रुकनेवाले
कितनी कलमें तोड़ेंगे
कब तक सच से मुँह मोड़ेंगे
हम भी फौलादी हौसले वाले
सीने की आग को
कोरे पन्नों में लिखने वाले

सच को जो कर रहे प्रताड़ित
पराजित न कर पाएंगे
भले जीत कर चल रहे अभी
पर मेरे हौसलें से न लड़ पाएंगे,

Tuesday, April 12, 2016

कोर कल्पना (हास्य व्यंग)

कोई भी कवि कल्पना के बिना अपूर्ण है, कवि ही कल्पना है और कल्पनाओं के सागर का निर्माता और समाज को उस आँखो से देखने की अद्भुत क्षमता कवि में ही है , आज हम भी ऐसा ही सोच रहे है , आप भी सोचो ,
आधुनिक युग में मनुष्य कितना आलसी हो गया है हम जानते है , सब्जियों को लेने तक हम वाहन का उपयोग करते है ,
यदि हमे कुदरत में कुछ विशेष जीवों जैसे अंग दिए होते तो क्या होता सोचा है कभी आप ने ,नही न आज सोचिये
यदि हम लोगो के पूँछ होती तो क्या होता है , हम टीवी का रिमोट हाथो से नहीं दबाते  , यह दूर रखे रिमोट को बस अपनी पूँछ से ही उठाते ,  पानी का ग्लास बस पूँछ से लपेटे और पी लेते , कितनी आसान होती यह जिंदगी , गाडी चलाते समय सईद पूँछ से ही लेते , उसको भी सजाने के लिए घण्टियाँ बाँधते , हाथो को कुछ हद तक आराम , शायद हम टाइप भी पूँछ से ही कर रहे होते , माँ भी जब गुस्सा होती तो घुमा के एक पूँछ मारती और हम लोग सीधे हो जाते , जब जब मन ललचाता पूँछ हिलाते , बचपन में अपनी पूँछ की कसमे भी खाते , जब डर जाते पूँछ दबा लेते , टीवी में ऐड भी आता की क्या आप की पूँछ छोटी है तो मात्र यह लेप बीस दिन लगाये पूँछ को हस्ट-पुस्त बनाये ,क्या जीवन होता अकल्पनीय अद्भुत । समाज भी अलग तरह से बटा होता ,विवाह में गठबंधन की जगह पूँछ बन्धन होता , पंडित जी अपनी पूँछ से आशिर्वाद देते , जरा सोचिये आप क्या करते ।

Friday, April 8, 2016

लेखन कला और विषमतायें

इस आधुनिक युग में कलम के सिपाहियो की कमी नहीं है
बस कमी है ह्दय को झिझकोर् देने वाले लेख की जो आप को पढ़ने वाले के मस्तिष्क के अंदर विचार धाराओं की एक बिजली प्रवाहित कर दे और पाठक मानसिक रूप  से आप से जुड़ जाए ,और उनकी यह  इच्छा प्रबल हो जाए की वह आप के विचरो से सहमत है , सामजिक सोच अच्छा का होना  काम नहीं आता ना ही किसी समस्या को उठाना , जब तक आप के पास उसका पूर्ण रूप से समाधान न पता हो , आज के समय में लोगों के पास चिंतन का समय नहीं है उन्हें जो चाहिए अर्थ सहित चाहिए , समाज में बदलाओ आप का लेख नहीं ला सकता पर दिशा जरूर दिखा सकता है
जब तक पाठक आप से भावत्मक रूप से नहीं जुड़ेंगे तब तक उसे क्या चाहिए यह नहीं पता चलेगा , आज के सामज में अनेक तर्क वादी उपस्थित है तो आप के विचारों में बाधा उत्प्न जरूर करेगे उनको भी आप अपने विचारो के अधीन कर सकते है ,समस्याओं और उसके समाधान पर आधारित लेख समाजिक ढाँचा को मजबूत करने का काम करता है और लेखक के अंदर के अनेक  विचरो के उफान को सांत करने का कार्य भी करता है ,अगर आप नहीं लिखते है और मानवता के विषय में चिंतन करते है तो आप एक लेखक बन सकते है बस आप अपने विचारो को इक्कठा कर के कोरे पन्ने में उतार दे यह मत सोचे की क्या गलत है क्या सही है क्योंकि आज के युवा लेखक सामाज की कुरीतियों पर ही विशेष ध्यान देते है अच्छाई पर नहीं ,यही कारण है की पढ़ने वाला पाठक समाज की धूमिल छवि अपने मन मस्तिष्क में बना लेता है , और उसके अंदर विरोधाभास उत्प्न हो  जाता है और इस कारण वह भी समाज की स्थिति  का सही पता नहीं लगा पता है , आप जो भी लिखे वह पाठक को समाज हित में कार्य के लिए प्रेरित करे, इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए आज का समाज उतना कुरीतियों से नहीं घिरा है  जितना किसी समय था आज काफी हद तक निज़ात मिल चुका है बस जो बची हुई समस्याएं है उनका निवारण करने के लिए बस लोगो को प्रेरित करने के लिए कलम चलानी है और उसी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है और एक किसी भी लेख के लिए शोध भी एक अहम भूमिका निभाता है ,और लेखक की विचार धारा शब्दों का चयन भी  एक मुख्य तथ्य है ,आप का लेख आज की भाषी प्रवत्ति के साथ साथ लेखन के लिये आवश्यक पूर्व निर्धारित शब्दों का उपयोग भी आवश्यक है तथा आप की रचना में आप द्वारा कुछ नय शब्दों का आविष्कार होना लाजमी है। यही नय शब्दों के जन्म का प्रमाण है कभी कभी यह उत्प्न नय शब्द पुरे लेख को एक दिशा प्रदान कर देते है  और लेखक के विचरो को खोल कर पाठक के सामने रख देते है, पाठक अपनी राय दे सके इसकी स्वतन्त्रा भी पाठक के पास होनी चाहिये  तभी कोई लेख एक प्रभावशाली रचना  हो सकती है , जो ह्दय को झिझकोर दे और आप के अंदर की सभी संवेदनाओं को जागृत कर दे , जरूरी नहीं केवल वह ही लिख सकता है , जो किसी संस्थान से जुड़ा हो यह उसका यह कार्य हो , लेखक हर वो आदमी हो सकता है , जिसकी सोच समाज हिती, यह विरोधाभाषी हो , लेखन वह कला है जो एक सुसूक्त पड़े हुए मनुष्य में अपनी लेखनी से शब्दों से ऊर्जा का संचार कर दे ,  यह ही लेखक की विशेषता होती है , वो यह कलम के उपयोग से सोच बदलने के साथ साथ समाज के नए नए पहलुओं को खोल सकता है , लिखता तो हर व्यक्ति है , हर सम्पादक है, पर कोई दूसरे लेखों के वाक्यों को चुराता है , कोई पूरा ही उतार देता है ,  जरूरी नहीं  की एक  सम्पादक ही महान लेखक हो सकता है ,  यह विचारक ,  जैसा की लोग मानते है , कोई छोटा सा सवांददाता , यह समाजसेवी , यह आम व्यक्ति  के अंदर वो गुण हो सकते है , जिसकी कलम समाज में जम जाये ।