कोई भी कवि कल्पना के बिना अपूर्ण है, कवि ही कल्पना है और कल्पनाओं के सागर का निर्माता और समाज को उस आँखो से देखने की अद्भुत क्षमता कवि में ही है , आज हम भी ऐसा ही सोच रहे है , आप भी सोचो ,
आधुनिक युग में मनुष्य कितना आलसी हो गया है हम जानते है , सब्जियों को लेने तक हम वाहन का उपयोग करते है ,
यदि हमे कुदरत में कुछ विशेष जीवों जैसे अंग दिए होते तो क्या होता सोचा है कभी आप ने ,नही न आज सोचिये
यदि हम लोगो के पूँछ होती तो क्या होता है , हम टीवी का रिमोट हाथो से नहीं दबाते , यह दूर रखे रिमोट को बस अपनी पूँछ से ही उठाते , पानी का ग्लास बस पूँछ से लपेटे और पी लेते , कितनी आसान होती यह जिंदगी , गाडी चलाते समय सईद पूँछ से ही लेते , उसको भी सजाने के लिए घण्टियाँ बाँधते , हाथो को कुछ हद तक आराम , शायद हम टाइप भी पूँछ से ही कर रहे होते , माँ भी जब गुस्सा होती तो घुमा के एक पूँछ मारती और हम लोग सीधे हो जाते , जब जब मन ललचाता पूँछ हिलाते , बचपन में अपनी पूँछ की कसमे भी खाते , जब डर जाते पूँछ दबा लेते , टीवी में ऐड भी आता की क्या आप की पूँछ छोटी है तो मात्र यह लेप बीस दिन लगाये पूँछ को हस्ट-पुस्त बनाये ,क्या जीवन होता अकल्पनीय अद्भुत । समाज भी अलग तरह से बटा होता ,विवाह में गठबंधन की जगह पूँछ बन्धन होता , पंडित जी अपनी पूँछ से आशिर्वाद देते , जरा सोचिये आप क्या करते ।
Tuesday, April 12, 2016
कोर कल्पना (हास्य व्यंग)
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