Wednesday, April 30, 2014
Sunday, April 27, 2014
सभ्यता की लड़ाई
सभ्यता की लड़ाई। ।
भूल कर सभ्यता हम अपनी ,
प्रश्चिम में अब ढल रहे ,
प्रेेम ग्रन्थ अब पढ़ रहे ,
अपने संस्कारो को भूल कर ,
मदिरा पान अब कर रहे ,
भूल कर सभ्यता हम अपनी ,
नव - निर्माण कर रहे ,
मौन होकर सभ्यता अपनी ,
अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही ,
चार कंधे नहीं ,
एक कंधे के सहारे बढ़ रही ,
भूल कर सभ्यता हम अपनी ,
प्रश्चिम में अब ढल रहे ,
ये कैसा ,
नव - निर्माण कर रहे ,
Thursday, April 24, 2014
कलयुग का मानव
कलयुग का मानव
कलयुग का बल बुद्धि हीन है मानव ,
पीढा से पीढ़ित दीन यह मानव ,
पतझड़ सा सुखा पात यह मानव ,
कलयुग का मानव ,कलयुग का मानव
उत्त्साह रहित कर्म हीन यह मानव
दया हीन दृस्टि हीन यह मानव ,
पीड़ित को पीड़ा देता यह मानव ,
कलयुग का मानव यह कलयुग का दानव ,
शक्तिहीन रक्त छीण यह मानव
पाप युक्त धर्म हीन यह मानव ,
घृणा युक्त प्रेम हीन यह मानव ,
कलयुग का मानव ,कलयुग का मानव ,
कलयुग का बल बुद्धि हीन है मानव ,
पीढा से पीढ़ित दीन यह मानव ,
पतझड़ सा सुखा पात यह मानव ,
कलयुग का मानव ,कलयुग का मानव
उत्त्साह रहित कर्म हीन यह मानव
दया हीन दृस्टि हीन यह मानव ,
पीड़ित को पीड़ा देता यह मानव ,
कलयुग का मानव यह कलयुग का दानव ,
शक्तिहीन रक्त छीण यह मानव
पाप युक्त धर्म हीन यह मानव ,
घृणा युक्त प्रेम हीन यह मानव ,
कलयुग का मानव ,कलयुग का मानव ,
Sunday, April 20, 2014
अबोध
अबोध …
माँ की खोज में लगी अबोध ,
बस उसको ममता का बोध ,
कहाँ से आई यह अबोध ,
मेरा ह्दय भी न कर पाया शोध ,
कलयुग की माँ या कलयुग की अबोध ,
किलकारियाँ वह भूल गई थी ,
मुस्कान भी उसकी रूठ गई थी ,
बस ममता की उसे भूख लगी थी ,
माँ की गोद से छूटी माँ की गोद में अब पड़ी थी
क्या है यह ? मै न कर पाया शोध ,
कलयुग की माँ या कलयुग की अबोध ,
Sunday, April 13, 2014
क़यामत
क़यामत ,,,
जब देखता हूँ सोचता हूँ ,
यह अंधेरा छाया है कैसे ,
चारों ओर कोहराम मचा ,
मृतुदूत आया हो जैसे ,
जब देखता हूँ सोचता हूँ ,
मौन रहते रहते यहाँ छाया सन्नाटा कैसे ,
जहाँ थी किलकारियाँ वहाँ ख़ून की छीटे कैसे ,
सोचता रहता यही यह अंधेरा मिटाया जाए कैसे ,
जब देखता हूँ सोचता हूँ
मानव दया को विश्लेषण बनाकर ,
क्रिया में पाप लाया कैसे ,
अब आशा भी बिखर गई काँच जैसे ,
जब देखता हूँ सोचता हूँ ,
Saturday, April 5, 2014
Friday, April 4, 2014
Wednesday, April 2, 2014
Tuesday, April 1, 2014
क्या लिखू
क्या लिखू
क्या लिखू ,
जब ढूढ़ता हुँ ,
अशब्द ही मिलते ,
जब देखता हुँ ,
विश्व शब्द हीन दिखता ,
विश्व में शब्द का भण्डार है ,
फिर क्यों छाया यह अंधकार है ,
कहाँ गई वह विचारधारा ,
वह शब्दो की रेखाए ,
विश्व में अपशब्दो का भण्डार बढ़ता ही जाता ,
जेसे शब्दो कोई निगलता ही जाता ,
उच्च विचारो की प्रवत्ति ,
अब शून्य हो चुकी इस विश्व में ,
समुद्र है अशब्द का शब्द अब बूँद में इस विश्व में ,
क्या लिखू अब शब्द नहीं मिलते इस विश्व में ,
कल्पना
कल्पना
लिख दो किताबों पर वह
जो इतिहास बन जाएँ,
कुछ ऎेसा लिखो ,
कि आप की कलम
तलवार बन जाएँ,
काट दो सर उनके
जो उठे एकता और
अखण्डता पर,
कुछ ऎेसा लिखो ,
की भारत फिर महान बन जाए ,
लिख दो किताबों पर वह
जो इतिहास बन जाएँ,
कुछ ऎेसा लिखो ,
कि आप की कलम
तलवार बन जाएँ,
काट दो सर उनके
जो उठे एकता और
अखण्डता पर,
कुछ ऎेसा लिखो ,
की भारत फिर महान बन जाए ,
वीरांगना
वीरांगना
आओ आज सुनाता एक कहानी ,
सावॅल सा तन था जिसका ,
मन में दया की ख़ान भरी थी ,
आँखो में अपना खाब लिए ,
आजादी के लिए खूब लड़ी थी ,
तलवार चलाती जब दोनों हाथों से ,
बिजली सी वो लग रही थी ,
आओ सुनाता एक कहानी ,
एक थी बड़ी वीरागंना रानी ,
लाखो सरों को काट गिराती ,
कितनो को मरघट पहुँचाती
फ़िरंगियों के रक्त की धार बहाती ,
रढ़ में वह विचर रही थी ,
झाँसी के राढ़ में वह वीरगंना लड़ रही थी ,
काल बनकर बरस रही थी ,
वो तलवारों की रानी थी
झाँसी की महारानी थी
आज सुनाता एक विजय कहानी ,
एक थी बड़ी वीरांगना नारी ,
आशा
आशा''''''
निराशा फिर आशा को तोड़ गई ,
बढ़ते हुए कदमो को रोक गई ,
कुछ करने कि मुझमें समझ नहीं ,
अब आगे बढ़ने की ललक नही ,
साहसा एक चीट को देखा '
जो चल रही थी ईट पर ,
आगे बढ़ने के लिये वह
सीख रही थी ईट पर ,
तब मुझको एहसास हुआ,
गौरी सा मुझको ज्ञान हुआ ,
फिर ललक जगी ,
फिर कदम बढ़े ,
फिर कुछ करने की सनक जगी ,
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