Thursday, June 12, 2014

गंगा

                                              गंगा 

कल-कल  का स्वर करती 
पतित पावनी जल धारा 
संस्कृती की जन्म दायनी 
अमृत सी जल धरा 

दूध सी गोमुख से निकली 
पापो को जो धोते चलती 
धरती की प्यास  बुझाती
फिर सागर से मिल जाती 

आज छिड़ी जंग यह कैसी 
मानव चला माँ मिटाने 
स्वर्ग से आई जल धारा को 
कर्मो से काला पानी बनाने ,

भारत को जिसने कृषि प्रधान बनाया 
सूखे में फसलो को लहराया 
आज स्वम् लड़ रही है ,देखो 
अब बस रोको गंगा मर रही है , देखो

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