गंगा
कल-कल का स्वर करती
पतित पावनी जल धारा
संस्कृती की जन्म दायनी
अमृत सी जल धरा
दूध सी गोमुख से निकली
पापो को जो धोते चलती
फिर सागर से मिल जाती
आज छिड़ी जंग यह कैसी
मानव चला माँ मिटाने
स्वर्ग से आई जल धारा को
कर्मो से काला पानी बनाने ,
भारत को जिसने कृषि प्रधान बनाया
सूखे में फसलो को लहराया
आज स्वम् लड़ रही है ,देखो
अब बस रोको गंगा मर रही है , देखो
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