Sunday, December 28, 2014

पाखी..


               पाखी....






एक पाखी,
मेरी साकी बन गयी,
पंख फैलाकर नभ् मे गुम गयी,
काश हम भी ,पाखी होते,
पंख फैलाते,गुम हो जाते ।

न बंधन कोई ,
न चिंतन कोई,
इस नव जीवन की,
तरणी मे,
मै शून्य यात्रा कर लेता,

मै नाहर बन,
गिरराज वक्ष मे,
अपना गेह बना लेता,
मै मेघ तुरंग बन,
अंचला की,
सात प्रकिमा कर लेता,

अपनी अभीष्ट पूर्ति कर,
हाला का भोग लगा लेता,
इस नव जीवन के,
अतुल्य मधु को,
आज यहाँ पर चख लेता,

अपने लोचन मे ,
लोक बसा ,
देवलोक यात्रा कर लेता,
पीर ,मद सब त्याग,
हिमकर मे धाम बसा लेता,

नीलकंठ के चरणों मे,
हलाहल भोग लगा देता,
मेघ मतंग बन,
आज सूर्य को मै ढक लेता,
चपला को वाहन बना
सुरपति से आज मै मिल लेता,

पंख फैलता ,
फिर उड़ जाता,
अर्श के उस अनंत तिमिर मे,